स्पर्श की साक्षी
क्या तुमने मुझे छुआ है?
या मैं ही हूँ—अपनी ही त्वचा पर
धूप-सी गिरती हुई,
अपनी जाँघों पर नाख़ूनों की चमकती लकीरों को सहलाती हुई?
किसने खोली मेरी पलकें—
तुम्हारी श्वास, या मेरी ही सुलगती आस?
होठों पर किसने टपकाई मोम की गरमी—
तुम्हारे बदमाश हाथ, या स्मृतियों की धीमी लौ?
रात के तकिए पर फिसलता वह नाम—
क्या तुम्हारा था,
या मेरे भीतर का कोई गुप्त अक्षर,
जो बरसों से मीठी-सी चुभन बनकर ठहरा है—और मैं उसी को तरसती रही?
धीरे-धीरे पत्थर अपनी धार छोड़
पानी की नरमी पहन लेता है;
और प्रश्न अपने ही उत्तर को
भीतर खींच लेता है—जैसे कुएँ में उतरता आकाश।
मैं ठिठकती हूँ:
किसके कमरे में जली यह ज्योति?
कौन-सा दीपक है जो बिना तेल के
इतना उजाला देता है?
तभी समझ में आता है—
तुम और मैं, एक ही समंदर में उठीं
दो लहरें—एक लय;
स्पर्श तो बहाना था,
गहराई अपना चेहरा देखना चाहती थी।
अब मैं तुम्हें नहीं,
अपने भीतर के साक्षी को छूती हूँ—
जहाँ इच्छा भी शांत है,
और प्रेम किसी नाम का मोह नहीं रखता।
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~ श्रीधरी देसाई
© Sreedhari Desai




