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निशब्द
मैं काँच-सी धीमे-धीमे किरचों में उतर गई,
और शोर भी नहीं हुआ।
मैं तप कर राख हो गई,
पर कोई उजाला न फूटा।
मैं भीतर की ख़ामोशी में घुलती रही,
और अर्थ का एक कण भी नहीं खुला।
मैं बर्फ-सी जमती रही,
और ज़रा-सा स्पर्श भी नहीं हुआ।
मैं गुमनामी की तह-दर-तह दबती गई,
सो मैंने इसी सन्नाटे को आसरा माना।
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~ श्रीधरी देसाई
© Sreedhari Desai

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