फिर से तुम
चिलमिलाती अधजली मोमबत्तियों में,
आधे प्रकट प्रबल चेहरे के साथ आते हो तुम|
पुरानी मसली हुई भावनाओं को,
पुन: सचेत, सशक्त करते जाते हो तुम||
चकोर की तरह हूँ, तुम्हारे विरह में संतप्त,
साथ चलने का वादा कर, तन्हा कर जाते हो तुम|
अक्सर अपनी नशीली आँखों के तीरों से,
कभी तिरस्कार तो कभी प्यार का छलावरण कर जाते हो तुम||
तुम्हारे ये खुरदरे हाथ अवहेलना-ग्रस्त,
बिना किसी की आज्ञा लिए, अवैध खोज में लीन हैं|
नये अन्वेषणों से मेरी पहचान कर,
एकाग्रित मन को अशान्त कर जाते हो तुम||
स्पर्श की आवाज़ के साथ अक्सर,
बंधन की सीमाओं को लांघते जा रहे हो तुम|
मेरे सम्भले से, सिमटे हुए नादान स्वपनों को,
क्षितिज की तरह विस्तृत करने पर तुले हुए हो तुम||
अनिश्चित सी ठहर गई हूँ एकाएक,
हाँ-या-ना की दुर्गम श्रृंखला में,
किन्तु सूरज की तपन की तरह,
मेरे तन-मन में बिखरे जा रहे हो तुम||
तुम्हारे दृढ़ चट्टान के समक्ष आखिरकार,
विचलित धारा बन रही हूँ मैं|
मेरे अपूर्ण, निरर्थक जीवन को,
पुन: सार्थक बना रहे हो तुम||
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~ श्रीधरी देसाई
© Sreedhari Desai